सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

!! अन्धेरे का अट्टहास!!

!! अन्धेरे का अट्टहास!!

उन अंधेरों का क्या कीजे जो कभी नहीं मिटते! 
कितनी सुबहा बीत जाती है...कितनी दिवालियाँ आ कर गुज़र जाती है !!
और उन दीयों का तो हिसाब ही कहाँ,जो हर रोज जलाए गए !!!

रोशनी का कतरा-कतरा निगल जाने वाला अन्धेरा, 
क्यूँ मज़बूत होता जाता है जलाई गयी हर लौ के साथ ? 
क्या 'तकदीरें'लिखने वाला भूल जाता है 
किसी की 'तक़दीर' में उजाला लिखना,
और 'अन्धेरा' ये मान लेता है कि इसके हिस्से में 
मैं ही लिखा गया हूँ !!

'ऊपर वाले' की भूल का खामियाजा 
'नीचे' वाला भुगता है...
रोशनी का कतरा ये कह कर पल्ल्ला झाड लेता है 
कि मैं तुम्हारी तकदीर में लिखा ही नहीं गया...
और 'अन्धेरा' अट्टहास करता रहता है,
आती-जाती सुबहों पर,
मनती दीवालियों पर,
रोज जलाए जाते दीयों पर.....!!!!
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